गोरखपुर, लंबे इंतजार के बाद बीते दिनों देश के सबसे शक्तिशाली दल की जिला और महानगर टीम की घोषणा हुई। जाहिर तौर पर कुछ की मेहनत रंग लानी थी, तो कुछ की उम्मीदों पर पानी फिरना था। जो जगह पाने में सफल हुए, उनमें से कुछ ने अपने आकाओं की चरण रज ली, तो कुछ ने इसे संगठन के प्रति समर्पण का इनाम बताकर खुद की पीठ थपथपाई। लेकिन जो टीम में जगह पाने में असफल रहे, उनका सिर्फ एक ही रोना था, काश! हमारा भी दल में कोई सरपरस्त होता। कुछ बड़े पदाधिकारी जब असफल कार्यकर्ताओं को दूसरी टीमों में समायोजन की घुट्टी पिलाकर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश करने लगे तो एक कार्यकर्ता के दिल का दर्द जुबां पर आ गया। बोले, परिक्रमा में बहुत ताकत है भाई। जब तक यह ताकत नहीं आएगी, किसी भी टीम में समायोजन की बात सोचना भी खुद को धोखा देने जैसा है।
फिर सत्ताधारी होने का क्या फायदा
देश के सबसे बड़े दल के स्थानीय नेताओं का एक दर्द इन दिनों शाश्वत हो गया है। सत्ता में होने के बाद भी उसका सुख न मिलने का दर्द। सभी की एक ही शिकायत रहती है, जब अफसर हमारी सुनते ही नहीं तो फिर सत्ताधारी दल में होने का क्या फायदा? कार्यकर्ताओं की आपस में मुलाकात के दौरान तो यह दर्द उभर आता ही है, छोटी-बड़ी बैठकों में भी इसे लेकर आए दिन कुछ कार्यकर्ता मुखर हो जाते हैं। इस दर्द से पीडि़त कार्यकर्ताओं का गुस्सा तब सातवें आसमान पर पहुंच जाता है, जब बड़े पदाधिकारी उन्हें यह कहकर सांत्वना देने की कोशिश करते हैं कि आप देश के सबसे बड़े दल के नेता हैं, इसलिए आपकी सोच भी बड़ी होनी चाहिए। नाराज कार्यकर्ता सामने तो कुछ बोल नहीं पाते, लेकिन बाद में यह कहते हुए दिख जाते हैं कि सोच बड़ी करके क्या करेंगे जब कोई पूछेगा ही नहीं।